दिल की बात, दिव्या के साथ
किसी ने कहा था कि शब्द अमर होते हैं, वे कभी नहीं मरते। जो हम बोलते हैं, वे भी 'जीवित' रहते हैं और जो हम लिखते हैं, वे तो रहते ही हैं। तब से नापतोल कर बोलने-लिखने की कोशिश करती हूँ। कोशिश रहती है कि मेरे शब्द उनकी आवाज बनें, जिनकी आवाज कहीं किसी वजह से दब गई है, या जानबूझकर दबा दी गई है। जिम्मेदारी के साथ लिखना पसन्द है। सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर लिखने का उद्देश्य है कि भीड़ में एक आवाज मेरी भी हो, बस 'अकेली' ना हो.....
Friday, July 18, 2025
Wednesday, June 7, 2023
मैंने पत्रकारिता क्यों छोड़ी, आगे क्या करूंगी.... अपनों के हर सवाल का जवाब
देश में यूपीए की सरकार थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा था। अधिकांश राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर होने वाली बहस में 'इंडिया अंगेस्ट करप्शन' की ओर से जो चेहरा दिखता था, वह डॉ. कुमार विश्वास का था। लखनऊ में मैं भी उस आंदोलन से जुड़ी थी। कांग्रेसी अक्सर कहते थे कि डॉ कुमार विश्वास तो शिक्षक हैं, जब वह आंदोलन कर रहे हैं तो क्लास कौन ले रहा है। ऐसी ही एक बात एक बार टीवी डिबेट के दौरान भी कही गई। वहीं पर डॉ. कुमार विश्वास ने नौकरी छोड़ने का ऐलान कर दिया।
लेकिन सवाल यह है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?
उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस वक्त देश को 'शिक्षक कुमार विश्वास' से ज्यादा 'आंदोलनकारी डॉ. कुमार विश्वास' की जरूरत थी। वह नहीं चाहते थे कि 'आंदोलनकारी डॉ. कुमार विश्वास' की वजह से 'शिक्षक कुमार विश्वास' के साथ जुड़े दायित्वबोध पर प्रश्न चिह्न ना उठें।
मेरी पत्रकारिता का करियर बहुत लंबा नहीं रहा। 7-8 सालों के छोटे से करियर में राजनीति से दूर शिक्षा पर काम करने की कोशिश की। सभी को पता है कि मैं राष्ट्रवादी विचार परिवार से आती हूं। लेकिन पत्रकारिता के करियर के आखिरी के पांच साल शिक्षा क्षेत्र को ही दिए। उत्तर प्रदेश देखती थी, राज्य में भाजपा की सरकार थी तो सवाल भी उनसे ही पूछे। विश्वविद्यालयों में प्रवेश, परीक्षा और परिणाम को लेकर भी जो खामियां मिलती थीं, उन्हें लेकर भी राज्य की भाजपा सरकार को ही घेरा। अच्छाइयों पर प्रशंसा भी की। लेकिन उस वक्त जब सवाल उठाती थी तो समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस तक के नेता/छात्रनेता कहते थे- दीदी, बहुत अच्छा काम कर रही हैं, आप लगी रहिए। इसी बीच ईश्वर की कृपा से एक प्यारी से बिटिया का जीवन में आगमन हुआ। बेटा चार साल का हो गया था, लेकिन मुझे लगता था कि उसे कम समय दे पाई हूँ तो सोचा कि फुलटाइम नौकरी से एक ब्रेक ले लेती हूँ, फ्रीलांसिंग करके सैलरी के बराबर तो मिल ही जाएगा। काम ठीक-ठाक चल रहा था।
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फिर अचानक से एक दिन समाजवादी पार्टी के मीडिया सेल के ट्विटर हैंडल से प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पर अमर्यादित टिप्पणी की गई। मैंने और मेरे पति ने सामान्य भाव के साथ आपत्ति जताई कि भाई, राजनीतिक लड़ाई अलग है लेकिन सूबे के उपमुख्यमंत्री के लिए अमर्यादित भाषा? यह तो ग़लत है। उसके बाद फिर समाजवादी पार्टी के नेताओं/कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक मंचों पर यह कहना शुरू कर दिया कि मैं भाजपा की एजेंट हूँ। पत्रकारिता के नाम पर हम पति-पत्नी भाजपा की दलाली करते हैं। इतना ही नहीं, मैं ब्राह्मण परिवार से आती हूँ, इसे लेकर भी अनर्गल टिप्पणियाँ शुरू हो गईं। यह सब सुनकर और पढ़कर मन को बहुत कष्ट हुआ। शांत तो बैठ नहीं सकती थी तो जवाब देना शुरू किया। जवाब दिया तो हमले भी और तेज़ हो गए। रेप की धमकियाँ मिलने लगीं।
कोविड की पहली लहर के दौरान मेरे जिस पति ने घर के बाहरी कमरे में अपना बेड लगवा लिया था, और दिनभर बाहर लोगों की मदद में लगा रहता था, घर से खाना बनवाकर बाँटता था, सरकार की लापरवाहियों को आईना दिखा रहा था, सरकारी राशन की घपलेबाजी करने वालों को सज़ा दिलवा रहा था, दूसरी लहर के दौरान जिसने बंगाल में होते हुए भी अपने सारे संबंधों को पिटारा अपरिचितों के लिए खोल दिया था, जिसने देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले परिचितों की मदद से पता नहीं कितनों की मदद की, उसका चरित्र हनन किया जाने लगा। तब तीन दिन ठीक से सोच विचार करने के बाद मैंने तय किया कि अब पूर्ण रूप से पत्रकारिता छोड़ दूँगी।
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कई लोग मुझसे सवाल करते हैं कि पत्रकारिता क्यों छोड़ी?
मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मुझे पता है कि जिस पार्टी के नेताओं के संरक्षण में मेरा, मेरे पति का, मेरे परिवार का, मेरे विचार का, मेरे दायित्वबोध का, मेरे समाज का, और तो और, मेरे जन्मजातीय संस्कारों पर आघात किया गया, उनसे तो आजीवन शत्रुता निभानी है। ऐसे में दूसरे पक्ष वालों का लाभ भी तय है। अब पत्रकार रहते हुए शत्रुता निभाती तो शत्रु मुझे अपने शत्रु का मित्र बताने लगता। इसलिए पत्रकारिता की शुचिता कोई प्रश्नचिह्न ना लगा पाए , इसलिए पत्रकारिता जीवन भर के लिए छोड़ दी।
मैं जातियों में विश्वास नहीं रखती थी, लेकिन जब मुझे सिर्फ़ इसलिए गालियाँ पड़ने लगीं, क्योंकि मेरे नाम के आगे ‘त्रिपाठी’ लगा है तो मुझे लगा कि इसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। सड़क के किनारे पूड़ी-सब्जी का ठेला लगाकर दिन में एक समय भोजन करने वाले रामकृष्ण ’मिश्रा’ के बेटे राहुल ’मिश्रा’ को जब विश्वविद्यालय के इंट्रेंस में 89 नंबर लाने के बाद भी एडमीशन नहीं मिलता है और उसी विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ‘जनजीवन प्रजापति’ की बेटी ‘आरोही प्रजापति’ को 55 नंबर लाने पर एडमिशन मिल जाता है तो मुझे लगा कि इस विसंगति के ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। घर में सुबह आँखों से नींद तब ओझल होती है, जब दादी सास की वाणी में मानस की चौपाइयाँ कानों में पड़ती हैं, उस श्रीरामचरितमानस और उसे रचने वाले बाबा तुलसी का चरित्र हनन कोई जाहिल करता है तो मुझे लगता है कि उसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। मुझे संस्कार देने वाले परिवार, परिवार से दूर आकर एक नई जगह पर मुझे कभी परिवार की कमी ना महसूस होने देने वाले मेरी ससुराल, मेरी ज़िन्दगी में आत्मविश्वास भरने वाले मेरे जीवन के राघव, मेरे विश्व, का कोई निर्बुद्धि चरित्र हनन करने का प्रयास करेगा तो मैं बोलूँगी। एक हज़ार बार बोलूँगी। जब तक ईश्वर बोलने की क्षमता देकर रखेगा, तब तक बोलूँगी।
जीवन में जब समाज को समझना शुरू किया तो हर शख़्स में कुछ ना कुछ कमी मिल ही जाती थी। दो ही शख़्स मिले जिनके आचार/विचार/व्यवहार में पूर्णता महसूस हुई। एक कुमार भईया और दूसरे विश्व। लगभग 10 साल पहले एक एक कार्यक्रम में कुमार भईया को कहते हुए सुना था कि मुझे नहीं पता कि आगे मैं क्या करूँगा, सब ईश्वर ही कराएगा। मुझे भी नहीं पता कि मैं आगे क्या करूँगी। पत्रकारिता मेरा पैशन थी। उद्देश्य समाज में, व्यवस्था में बदलाव लाना था। पैशन छूट गया, उद्देश्य वही है। विश्व कहते हैं कि मैं जो करना चाहता हूँ, कई बार लगता है कि वो नहीं कर पा रहा हूँ, लेकिन संतुष्टि इस बात की है कि जो मैं नहीं करना चाहता हूँ, वह नहीं कर रहा हूँ। मैं भी बस वही कर रही हूँ, और करती भी रहूँगी।
आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद बना रहे।
आपकी अपनी
दिव्या
Sunday, November 20, 2022
हमारे कुमार भईया: जिनकी कविताओं से मेरा इश्क़ मुकम्मल हुआ
वह राजनीति में गए थे, कुछ बदलने गए थे, कुछ नया करने गए थे। लेकिन कुछ और ही हुआ, राजनीति उनके साथ ही हो गई। वह देश के लिए, देश के ‘युवा विश्वास’ के लिए कुछ बेहतर करना चाहते थे, लेकिन यह नयापन राजनीति को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाकर रखने वालों को कहां बर्दाश्त होने वाला था। अपनी दुकान चलती रहे, बाक़ी देशवासी जाएँ भाड़ में, यह सोच फिर जीत गई। एक सामान्य व्यक्ति होता तो हार मान लेता, लेकिन कहते हैं ना कि जिसने इश्क़ में मिली हार को अपनी ताक़त बना लिया, उससे कभी किसी क्षेत्र में कोई नहीं जीत सकता। राजनीति की उस कथित हार ने कविता को नई धार दी, उसने इस ‘विश्वास’ को और मज़बूत किया कि जब बात देश की होगी तो वह शख़्स ‘अपनों’ के खिलाफ भी बोलने से नहीं चूकेगा।
बात साल 2009 की है। ग्रेजुएशन में पढ़ने वाली उस दिव्या बाजपेई को किसी से कोई मतलब नहीं था, कोशिश थी कि बस पढ़ाई करके कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए। कॉमर्स से पढ़ाई कर रही थी, साथ में एक कंप्यूटर कोर्स भी जॉइन किया था। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियाँ सामान्य तौर पर इससे ज़्यादा कुछ सोच भी कहां पाती हैं। उसी कोचिंग में एक लड़का और पढ़ता था, हम अच्छे दोस्त थे। अच्छे मतलब एक घंटे की कोचिंग में बस यूँ ही मिल जाने वाले दोस्त। कोचिंग ख़त्म हुई तो संपर्क भी ख़त्म हो गया। फिर 2011 में लखनऊ विश्वविद्यालय में फिर उससे मुलाक़ात हो गई। अपने कुछ दोस्तों के साथ वह एबीवीपी की मेंबरशिप करा रहा था। मेरे साथ भी 4-5 लड़कियाँ थीं, तो मैंने भी मेंबरशिप करा ली। मुझे या मेरी दोस्तों को यह नहीं पता था कि एबीवीपी क्या है, लेकिन बस समझने में ज़्यादा टाइम ना बर्बाद हो, तो तुरंत पर्ची कटवाई और जाने लगी। तभी उस लड़के ने पीछे से आवाज़ देकर रोका और मेरे पास आया, मेरा नंबर पूछा। मैं उस वक़्त पढ़ाई के साथ एक स्कूल में पढ़ा भी रही थी। एक छोटा सा रिलायंस का फ़ोन था। नंबर दिया और उसने मिसकॉल की।
कुछ दिनों के बाद उसका फ़ोन आया, उसने कहा कि ‘शहीद स्मारक’ पर अपनी कुछ दोस्तों को लेकर आ जाओ। मैंने पूछा- क्यों? उसने कहा कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ धरना देना है। पर मुझे देश में हो रहे भ्रष्टाचार से क्या फ़र्क़ पड़ता था। मैंने मना कर दिया। देर शाम फिर उसका फ़ोन आया। उसने कहा कि चलो ठीक है, एक बार मिल लो, धरने में मत आना। मैंने बेमन से कहा कि चलो ठीक है। मैं मिलने गई। क़रीब देढ़ से दो घंटे तक उसने मुझे समझाने की कोशिश की कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में साथ लेना क्यों ज़रूरी है। उसके कुछ और भी दोस्त साथ थे। मुझे तो समझ में नहीं आया लेकिन मेरे साथ खड़ी मेरी दोस्त तैयार हो गई। उस लड़के की अगली लाइन थी- एक बार दिल्ली का माहौल समझो, चलो ठीक है कल दोपहर में मेरे साथ मेरे घर चलना। मैंने मना कर दिया, क्योंकि मुझे पढ़ाई भी करनी थी। लेकिन वह पीछे ही पड़ गया। फिर हमने अगले दिन का इंतज़ार नहीं किया, मैं उसी शाम पहली बार उसके घर गई। वहाँ उसने कंप्यूटर पर कई विडियो दिखाए, लाखों की भीड़ दिल्ली में बैठी थी। फिर उसने सैकड़ों तर्क दिए और अहसास दिलाया कि एक भारतीय के तौर पर मेरी भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं। जो छोटी-छोटी क्लिप्स उसने मुझे दिखाई थीं, उनमें कुछ तो नारेबाज़ी की थीं और कुछ एक कवि की। एक कवि जो ‘तिरंगा’ भी सुनाता था और अपने भाषण से वहाँ मौजूद लोगों में ऊर्जा भी भर रहा था। फिर मुझे याद आया कि यह तो कुमार विश्वास हैं, जिनकी कविता ‘कोई दीवाना कहता है’ शायद ही मेरी उम्र के लड़की-लड़के से छूटी हो।
खैर, स्मार्टफ़ोन तो तब थे नहीं, तो मेरी एक दोस्त आँचल से उसका नोकिया का मल्टिमीडिया फ़ोन लेकर उसमें 3जीपी फ़ॉर्मेट में उन क्लिप्स को डलवाया। वहाँ से निकली और रिक्शे पर बैठी तो उसने कहा कि ‘कल विश्वविद्यालय पर पुतला फूंकना है, 20 लड़कियों को लाने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी।’ उस वक़्त मैं भी जोश से लबरेज़ थी, मैंने भी कहा कि पक्का ले आऊँगी। लेकिन घर जाकर जब दोस्तों से बात करना शुरू किया तो अधिकांश ने मना कर दिया। 3-4 दोस्त ही तैयार हुईं। अगले दिन सुबह एकाउंट्स की कोचिंग गई, वहाँ कुछ लोगों को साथ चलने के लिए मना लिया। लगभग 13 लोग हम विश्वविद्यालय पहुँचे, हालाँकि उनमें लड़कियाँ सिर्फ़ 7 ही थीं। हम सभी पहली बार किसी प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे। चारों तरफ़ पुलिस थी, हम लोगों ने पुतला दहन का स्थान बदला और जैसे ही पुतला फूंका, तुरंत पुलिस की लाठियाँ बरसने लगीं। सब वहाँ से तुरंत ग़ायब हो गए, मेरे साथ जो लोग थे, उनको पता ही नहीं था कि भागना भी होता है। उस शाम पता लगा कि लोगों में यह भ्रम था कि लड़कियाँ होती हैं तो पुलिस जल्दी लाठियाँ नहीं बरसाती है। लेकिन यह भ्रम भी टूट चुका था। रातभर मेरे दिमाग़ में वहाँ लगे नारे गूंजते रहे। अगली सुबह अख़बार में फ़ोटो छपी तो घरवालों ने खूब समझाया। लेकिन उस पुराने दोस्त ने सपने ऐसे दिखाए थे, जैसे हम कुछ लड़के-लड़कियां पूरी व्यवस्था बदलने वाले हैं।
अगले दिन से दिन में चार-पांच प्रदर्शन हो ही जाते थे। मेरा काम था, अधिकतम लड़कियों को जोड़ना, उन्हें बताना कि इस आंदोलन में शामिल होना क्यों ज़रूरी है। मैं कोई नेता तो थी नहीं, जो भाषण देकर लोगों को अपने साथ जोड़ लेती। मैं बस कुमार विश्वास जी की वो छोटी-छोटी क्लिप्स दिखाती थी। 3-4 दिन की मेहनत में मेरे साथ क़रीब 170 ऐसी लड़कियों की टीम थी जो हर वक़्त उपलब्ध रहती थी। कभी पैदल मार्च तो कभी सांसद का घेराव। बस सब चलता ही जा रहा था। कुछ दिन बाद आंदोलन ख़त्म हो गया। एक नए राजनीतिक दल के बनने की घोषणा हुई, उसमें कुमार विश्वास जी भी थे, लेकिन विचार ऐसे बन चुके थे कि उस दल को स्वीकार भी नहीं कर पा रही थी और कुमार विश्वास जी के तर्कों को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर पा रही थी। लेकिन हाँ, मन में एक विश्वास था कि जो आंदोलन युवाओं के विश्वास की नींव पर खड़ा था, उससे निकले ये कुछ लोग ज़रूर बदलाव लाएँगे। फिर पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू हो गई और मैं भी इन चीजों से हटकर अपनी पढ़ाई में लग गई।
साल 2014 तक स्मार्टफ़ोन ठीक तरह से प्रचलन में आ गए थे। मैं अपनी पढ़ाई-नौकरी में व्यस्त थी। जिस लड़के ने मुझे तीन साल पहले एबीवीपी से जोड़ा था, उसका नाम ‘विश्व गौरव’ था। उससे 3-4 महीनों में हाय-हेल्लो हो जाता था। वो दिल्ली में था और मैं लखनऊ में। फिर एक दिन अचानक उसने कविता मुझे भेजी। मैंने पूछा-तुमने लिखी है? उसने कहा- नहीं, लेकिन पढ़ो ऐसे, जैसे मैं तुमसे कह रहा हूँ। मुझे कुछ समझ नहीं आया। फिर भी मैंने गूगल पर सर्च किया तो पता लगा कि वह कविता डॉ. कुमार विश्वास की है। अगले 3-4 दिन के बाद उसका मैसेज आया- मुझसे शादी करोगी? मेरे लिए थोड़ा सा अप्रत्याशित था। मैं तो उसके परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती थी। इसलिए मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। देर शाम उसका कॉल आया। मैंने फ़ोन उठाया तो वही सवाल। मैंने कहा कि हम अच्छे दोस्त हैं, और वही रहना चाहते हैं। उसने कहा ठीक है, लेकिन अगर हम दोस्त हैं तो हमें अपनी बातें तो एक दूसरे से शेयर करनी चाहिए। फिर हम देर रात तक बातें करने लगे। पहले तो दिनभर की बातें और फिर एक साथ फ़ोन पर डॉ. कुमार विश्वास जी की कविताएँ सुनते थे। हम जितना एक-दूसरे को जानते थे, उसमें बस यही एक चीज कॉमन पसंद भी थी। यह सिलसिला क़रीब 7-8 महीने चला होगा। एक-एक कविता हमने हज़ारों बार सुनी।
वे कविताएँ सुनते-सुनते कब मुझे विश्व से प्यार हो गया, पता ही नहीं चला। फिर एक शाम मैंने उससे पूछा कि तुम्हारा पूरा नाम क्या है? उसने कहा- विश्व गौरव। मैंने कहा- मतलब पूरा (मैं उसकी कास्ट पूछना चाहती थी, हम परिवार में बात करते तो पहली समस्या तो यहीं पर खड़ी होती।) उसने कहा- पूरा नाम विश्व गौरव ही है। बाक़ी जाति जानना चाहती हो तो वह तो कर्मों के हिसाब से तय होती है, और नौकरी करता हूँ तो वैश्य समझ लो। मैंने मान लिया कि वह ब्राह्मण तो नहीं है। लेकिन मेरा प्रेम जिस स्तर पर पहुँच चुका था, सच कहूँ तो वहाँ जाति इतना मैटर भी नहीं करती थी। क़रीब एक साल के बाद मुझे पता लगा कि वह भी ब्राह्मण परिवार से ही है। खैर, तीन सालों के संघर्ष के बाद हमारी शादी हो गई। शादी के बाद भी हमारे घर में शाम को डॉ. कुमार विश्वास की कविताएँ हर रोज़ सुनी जाती थीं। मैं उनसे कभी मिली नहीं थी, लेकिन उनकी बातें और कविताएँ और पुराने भाषण सुनकर मुँह से स्वतः ही ‘कुमार भईया’ निकलता था।
22 जून 2018, विश्व कुछ परेशान थे। पत्रकार रवीश कुमार ने कोई रिपोर्ट की थी, और उसमें फैक्ट्स में गड़बड़ी थी। असल फैक्ट्स के साथ उन्होंने एक ब्लॉग लिखा था और उसे संस्थान ने प्रकाशित करने से मना कर दिया था। विश्व ने उसे अपने पर्सनल ब्लॉग पर डाला। वह जब परेशान होते थे तो कुछ ना कुछ लिखते थे। अगले दिन मैं दोपहर में कुमार भईया का एक इंटरव्यू देख रही थी, वह राजनीति पर कुछ बोल रहे थे। इंटरव्यू देखने के बाद मैंने विश्व की डायरी उठाई और देखने लगी कि पिछली रात उन्होंने क्या लिखा था। उसमें एक कविता लिखी थी। कविता कुछ यूँ थी-
जब तक भोली जनता को, वे छल से शांत कराएंगे
तब तक बन रण के कान्हा हम, गीता का पाठ पढ़ाएंगे
वे मूर्ख समझकर हम सबको, नैसर्गिक झूठ दिखाते हैं
आनंद भाव से सत्य मानकर, हम उनके ही गुण गाते हैं
आडंबर वाली वे रस्में, अब और नहीं सह पाएंगे
अनुकूल रहे हम सदा सत्य के, स्फूर्ति पुनः वह लाएंगे
सत्ता के चरण पखार हमें, ना पुरस्कार की आशा है
बस बने प्रतिष्ठा भारत की, अभियोग सभी सह जाएंगे
नयन सेज पर एक स्वप्न है, आर्य पुनः हम बन जाएं
तुम छेड़ोगे यदि इसको तो, अरिहंत रूप अपनाएंगे
हैं शिव हमारे हर कदम में, विषपान से घबराते नहीं
हो तिमिर यदि गृहकलश में, चुप बैठ हम पाते नहीं,
स्वयं जलकर उस अंधेरे का सुखद वध हम करेंगे
प्राणदानी, ब्रह्म दीपक, बन सदा यूं ही जलेंगे।
इसी कविता से दो पंक्तियाँ उठाकर मैंने कुमार भइया को मेंशन करते हुए उनकी तस्वीर के साथ ट्वीट कर दिया। कुछ देर के बाद ट्विटर के इनबॉक्स में एक मैसेज आया। ‘Shandar’, मैसेज कुमार भईया का था। बस इतना सा ही संवाद था हमारा।
इसी साल सितंबर में मुझे मातृत्व का सौभाग्य मिलने वाला था। बच्चे के नामकरण को लेकर मेरे और विश्व के परिवारों की परंपराएँ अलग थीं। विश्व के परिवार की परंपरा थी कि कोई ब्राह्मण ही नामकरण करता था। वहीं मेरे परिवार में बच्चे के मामा को नामकरण का दायित्व निभाना होता था। विश्व का कहना था कि अगर कोई ब्राह्मण नामकरण करेगा तो वह ऐसा होना चाहिए जो अपने ज्ञान की वजह से ब्राह्मण हो, ना कि नाम के पीछे लगी ‘जाति’ से। मैंने बहुत विचार किया और फिर लगा कि उससे बड़ा ब्राह्मण कौन है, जो सदा सत्य बोलता है, जिसकी जिह्वा पर स्वयं माँ शारदे विराजमान रहती हैं। फिर मैंने कुमार भइया को एक मैसेज करके आग्रह किया कि वह मेरे बच्चे का नामकरण करें। ऐसा होने से मेरे और विश्व के परिवार की परंपरा का निर्वहन भी हो जाता और विश्व की इच्छा भी पूरी हो जाती। कुमार भइया की ओर से जवाब आया, ‘नवागत का स्वागत है ! समय पर सूचित करना ! यथेष्ट करूँगा ! जीती रहिए’
बस यहीं से भाई-बहन का मुंहबोला रिश्ता ‘वर्चस्व’ की डोर से बंध गया…
सिर्फ मैं ही नहीं, देश की लाखों बेटियों के मन से डॉ कुमार विश्वास के लिए 'भाई' का भाव ही आता है, क्योंकि हम सभी को भरोसा है उनपर... राजनीति में रहने के बावजूद यदि कोई अपने से पहले उन अपनों के बारे में सोचता है, जिनसे कभी मिला ही नहीं तो उससे बेहतर इंसान तो कोई हो ही नहीं सकता। इन सबके बीच एक और सपना था, जो अब तक अधूरा है। वह सपना है सदन से कुमार भईया को सुनना। पता नहीं, आप क्या सोचते हैं, लेकिन मुझे अपने श्रीराम पर भरोसा है, मुझे भरोसा है कि भले ही 2011 में दिखाए गए सपनों की हत्या कर दी गई हो, लेकिन यह सपना जरूर पूरा होगा।
Thursday, July 11, 2019
DGP सर कहते हैं- इज्जत जाए तो जाए, पर 'अनुशासन' में रहो!

जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि इन रिक्रूट्स ने साधारण समस्याओं व सुनी-सुनाई बातों और अफवाहों के कारण प्रशिक्षण के नियमों का उल्लंघन करते हुए सड़क जाम की। जिसके बाद इन चारों को नोटिस भेजकर स्पष्टीकरण मांगा गया। जवाब संतोषजनक न होने के चलते चारों को सेवामुक्त कर दिया गया। इन सभी रिक्रूट कान्स्टेबलों को अनुशासनहीनता का दोषी पाया गया है। इस पूरे मामले पर लोग यूपी पुलिस की काफी तारीफ कर रहे हैं। निश्चित तौर पर अनुशासन का जीवन में विशेष महत्व है और पुलिस जैसे विभागों में तो अनुशासन ही ड्यूटी का आधार होता है लेकिन क्या मामला बस इतना ही है? नहीं, बात यहीं खत्म नहीं होनी चाहिए क्योंकि जिस तरह की कार्रवाई इन महिला आरक्षियों पर की गई है, वह प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है। साफ शब्दों में कहूं तो यह अनुशासनहीनता पर की गई कार्रवाई नहीं बल्कि सभी पुलिसकर्मियों को एक चेतावनी है कि 'तुमको जैसे रखा जाए रहो, कुछ मत बोलो, सही की मांग मत करो, बस शांत रहो और घिसते रहो खुद को चुपचाप।'
हम हमेशा पुलिसकर्मियों को गालियां देते हैं। कमियां उनमें हैं लेकिन वे 'अछूत' नहीं हैं। हमारे-आपके घरों के बच्चे पुलिस में जाते हैं। क्या गलती थी इन लड़कियों की। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो रिक्रूट ट्रेनिंग सेंटर पुलिस लाइन में प्रशिक्षण ले रहीं महिला कान्स्टेबलों का आरोप था कि रिक्रूट ट्रेनिंग सेंटर पुलिस लाइन में एक रात किसी बाहरी युवक ने बैरक की खिड़की से हाथ डालकर छेड़छाड़ की। जब लड़कियों ने शोर मचाया तो वह भाग गया लेकिन आरआई मौके पर नहीं पहुंचे। इनका कहना था कि यह बैरक पुरुष प्रशिक्षार्थियों के लिहाज से बना है, इनकी दीवारें छोटी हैं, जिससे बाहरी लोग अंदर आ जाते हैं, महिलाओं की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। बैरक से बाथरूम भी दूर है वह खुला भी है जिससे बाहरी लड़के तांक-झांक करते हैं। ये छोटे आरोप थे?
और क्या मांगा था इन लड़कियों ने? सुरक्षा के अलावा लाइट और खिड़कियों में शीशे ही तो मांगे थे। बहुत कठिन ट्रेनिंग करवानी थी तो मना कर देते लेकिन अगर इन चीजों के न होने की वजह से किसी महिला के साथ छेड़छाड़ की जा रही है तो साहब, आपकी जिम्मेदारी थी कि ये चीजें उपलब्ध कराई जाएं। लाइट की पर्याप्त व्यवस्था न होने से, खिड़की में शीशा न होने से, पर्याप्त ऊंचाई की बाउंड्री न होने से इन महिला प्रशिक्षुओं को असुरक्षा की भावना महसूस होती थी तो इस असुरक्षा को दूर किए जाने की जरूरत थी, ना कि एक कमिटी बनाकर मामले में छेड़छाड़ के आरोप को गलत बता दें और महिलाओं के प्रदर्शन का ठीकरा चार लड़कियों पर फोड़कर मामला खत्म कर देना चाहिए था।
एक बार कल्पना करके देखिए कि शुरुआती ट्रेनिंग में ही बता दिया जाता है कि प्रदर्शन वगैरह करने से आपकी नौकरी जा सकती है। क्या पुलिस लाइन के बाहर प्रदर्शन करने वाली सैकड़ों लड़कियों को अपनी नौकरी की चिंता नहीं रही होगी? क्या उन्होंने नहीं सोचा होगा कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो कड़ी मेहनत के बाद मिली नौकरी से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता है? क्या उन्हें अपने परिवार का ख्याल नहीं आया होगा? उन सभी ने इन सारी चीजों के बारे में सोचा होगा लेकिन नौकरी जाने से बड़ा कोई 'डर' रहा होगा, जिसने उन्हें पुलिस लाइन के बाहर प्रदर्शन करने को मजबूर किया। मैं भी एक महिला हूँ, मेरा मानना है कि किसी भी महिला के लिए उसकी इज्जत से बढ़कर नौकरी नहीं हो सकती और अगर किसी महिला को अपनी इज्जत को दांव पर लगाकर नौकरी करनी पड़े, तो हमें यह सोचना पड़ेगा कि क्या वाकई इस देश में हम महिलाओं को सुरक्षा दे पा रहे हैं। क्या एक लड़की की इज्जत से बढ़कर तथाकथित अनुशासन होना चाहिए? क्या उन शोहदों का कोई दोष नहीं जो हमारी बेटियों को छेड़ते हैं, उनकी कोई सजा नहीं? फिर तो बात वहीं आकर टिक गई कि पुरानी परंपरा के अनुसार बेटियों को ही दबाकर बैठा लो क्योंकि वो तो बेटियां हैं, बेटों का क्या वो तो कुछ भी कर सकते हैं, क्योंकि वो बेटे हैं। अगर अनुशासन इतना ही महत्वपूर्ण है तो जहां उन महिला आरक्षियों के रुकने का इंतजाम किया गया है जिसमें न लाइट है, न बाथरूम में दरवाजे हैं, न पर्याप्त ऊंचाई की बाउंड्री है, न खिड़कियों में शीशा हैं तो ऐसी परिस्थिति में किसी भी लड़की का बलात्कार भी हो जाए तो उसे अनुशासन को ध्यान में रखकर चुप्पी साध लेनी चाहिए, उसे इसके खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए।
डीजीपी साहब! आप इन सभी महिला रिक्रूट कान्स्टेबलों के अभिभावक थे, आपकी जिम्मेदारी थी कि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते लेकिन आपने तो लड़कियों से सपने देखने का हक ही छीन लिया। आपकी जांच कमिटी ने तो कह दिया कि छेड़खानी नहीं हुई लेकिन क्या मानवीय दृष्टिकोण से आपने अपने विवेक से सोचा कि एक महिला, जो खुद को समाज की जिम्मेदारी लेने के लिए खुद को तैयार कर रही है, वह यूं ही अपने साथ छेड़खानी होने की बात करने लगेगी? डीजीपी सर, वैसे तो यह आपके अपने विभाग का मामला है और मैं एक नागरिक, मुझे आपके विभाग की कार्रवाई के बीच बोलने का हक तो नहीं है लेकिन एक महिला होने के नाते मैं आपसे पूछती हूं कि क्या अब कोई लड़की पुलिस में भर्ती होकर पूरी निष्ठा के साथ काम करने की हिम्मत जुटा पाएगी? क्या एक लड़की को घर से लेकर नौकरी तक, हमेशा इस तरह के 'समझौतों' के साथ ही जीना होगा? सर, उन लड़कियों की नौकरी लेकर आपने शायद अपनी नजर में यह मैसेज दिया हो कि पुलिस विभाग में अनुशासन हीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी लेकिन एक महिला के तौर पर मेरी नजर से यह एक पाबंदी है लड़कियों की सोच पर, यह एक साफ मैसेज है कि भले ही हमें दो हाथ के घूंघट से आजादी मिल गई हो लेकिन हमें इस सोच से आजादी नहीं मिल सकती कि लड़कियों को चुपचाप सबकुछ बर्दाश्त करना होगा।
Wednesday, May 22, 2019
हमें सीता बनने की सीख देने वालो, तुम राम कब बनोगे?

इन तस्वीरों के साथ लिखी गईं पोस्ट से क्या जताने की कोशिश की जा रही है? ये पोस्ट करने वाले यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होने स्लीवलेस ब्लाउज पहन रखा है, वह संस्कारी नहीं हैं। उन्होने घड़ी और चश्मा पहन रखा, वह कुछ ज्यादा ही आधुनिक हो गई हैं। उनके बाल खुले हुए हैं, उन्हें अपने परिवार की इज्जत का खयाल नहीं है। उनके सिर पर पल्लू नहीं है, वह भारतीय संस्कृति को नहीं मानतीं और भी न जाने क्या-क्या…
कौन संस्कृति की दुहाई दे रहा है, जिस देश में एक महिला इसलिए ‘खूबसूरत’ लगने लगती है, क्योंकि उसने थोड़े छोटे कपड़े पहने हैं। जिस देश में किसी महिला के चरित्र पर सवाल इसलिए उठाए जानें लगें क्योंकि उसने छोटे कपड़े पहने हैं, क्या वह देश कभी आधुनिक हो पाएगा? कभी ऐसा देश आगे बढ़ पायेगा? सदियों पुरानी महिला विरोधी सोच को ढो रहे ये लोग वही हैं, जो सिर्फ यह चाहते हैं कि महिलाएं उनके पैर की जूती बनकर रहें। मुझे जिन कपड़ों में खुद को सुविधाजनक महसूस होता है, मैं वहीं कपड़े पहनती हूं। मैं कितनी संस्कारी हूं, इसके लिए मुझे कम से कम ऐसी सोच वाले लोगों को तो प्रमाण देने की जरूरत महसूस नहीं होती।Thursday, November 16, 2017
इस पढ़ने के बाद अंत में दिए गए सवाल का जवाब जरूर दें...
जिस से भी हम प्यार करते हैं, उससे बिना किसी शर्त के, बिना किसी लालच के, बिना किसी द्वेषभावना के हमेशा दिल से प्यार करते रहना चाहिये। क्योंकि जब हम किसी को दिल से प्यार करते है, तब हम सामने वाले के दिल में हमेशा के लिए बस जाते हैं। हो सकता है कि आपके रिश्ते में झगड़े हों, लेकिन पहले झुककर उससे प्यार से बात करें। क्योंकि किसी के सामने झुकने का अर्थ यह नहीं है कि आप उससे छोटे हो गए या हार गए, बल्कि इसका मतलब होता है कि आपमें उस रिश्ते को निभाने की क्षमता ज्यादा है, आपमें उस रिश्ते के प्रति अधिक समर्पण है, और आप उस रिश्ते को अपने अहंकार से ज्यादा प्यार करते हैं।
प्यार से बोला गया आपका एक शब्द दो दिलों के बीच हो रहे बड़े से
बड़े मनमुटाव को भी खत्म कर सकता है। हालांकि आज हम उस दौर में जी रहे हैं
जहां हम दुश्मन तो आसानी से पहचान जाते हैं लेकिन सच्चे या झूठे प्यार को
पहचानना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। तो प्यार करिएगा, तो संभलकर
क्योंकि हो सकता है कि आपका एक गलत फैसला आपकी जिंदगी को जन्नत से जहन्नुम
बना दे।प्यार एक गहरा और खुशनुमा अहसास है। जब किसी से प्यार होने लगता है तो रिश्ते की शुरुआत में हम अक्सर सिर्फ सकारात्मक चीज़ें ही देखते हैं, और सातवें आसमान पर खुद पर महसूस करते हैं। यह एहसास इतना गहरा होता है कि यदि हमें उस व्यक्ति से बदले में उतना ही प्यार न मिले तो काफी दुःख पहुंचता है। वक़्त के साथ प्यार की 'शुरुआत' वाला अहसास बदलने लगता है, और अब यह अहसास पहले से गहरा, मजबूत, होने लगता है- अब आप उनसे प्यार करने लगे हैं।
निष्कर्ष यह है कि प्यार अलग अलग चरणों में विकसित होता है। पहले शारीरिक आकर्षण का दीवानापन, फिर स्वप्नलोक, फिर मजबूत लगाव और उसके बाद दौर आता है गहरे प्यार का जो अक्सर उम्र भर तक रहता है। इसमें ना जाति का भेद देखा जाता है, ना धर्म का... इस मोहब्बत में सिर्फ मोहब्बत होती है... जो रूह से रूह तक का जुड़ाव रखती है... इस पूरी कथा को लिखने के बाद मन में एक सवाल उठा है...
आखिर 'सलीम' जब 'आराधना' से सच्चा प्यार करता है तो उसे 'शहनाज' बनाए बिना शादी क्यों नहीं कर सकता?
Saturday, August 12, 2017
फिर गुलाम होने वाला है भारत!
एक तरफ डोकलाम में चीन ने हमारी नाक में दम कर रखा है और दूसरी ओर हम उसका सामान अपने देश मे आयात कर रहे हैं। उसी कमाई से उन बंदूकों की गोलियां बनती हैं जो डोकलाम में चीनी सेना के जवान लेकर खड़े हैं। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, अधिक से अधिक मात्रा में स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। हम चीन से अपना आयात-निर्यात क्यों नही रोक सकते। यदि हमने ऐसा किया तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था में भी सुधार आएगा और बेरोजगार व्यक्तियों के लिए रोजगार के साधन भी बढ़ जाएंगे। ऐसा नहीं है कि रोजगार सिर्फ चाइनीज कंपनियां ही दे सकती हैं। 

