Sunday, November 20, 2022

हमारे कुमार भईया: जिनकी कविताओं से मेरा इश्क़ मुकम्मल हुआ

 वह राजनीति में गए थे, कुछ बदलने गए थे, कुछ नया करने गए थे। लेकिन कुछ और ही हुआ, राजनीति उनके साथ ही हो गई। वह देश के लिए, देश के ‘युवा विश्वास’ के लिए कुछ बेहतर करना चाहते थे, लेकिन यह नयापन राजनीति को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाकर रखने वालों को कहां बर्दाश्त होने वाला था। अपनी दुकान चलती रहे, बाक़ी देशवासी जाएँ भाड़ में, यह सोच फिर जीत गई। एक सामान्य व्यक्ति होता तो हार मान लेता, लेकिन कहते हैं ना कि जिसने इश्क़ में मिली हार को अपनी ताक़त बना लिया, उससे कभी किसी क्षेत्र में कोई नहीं जीत सकता। राजनीति की उस कथित हार ने कविता को नई धार दी, उसने इस ‘विश्वास’ को और मज़बूत किया कि जब बात देश की होगी तो वह शख़्स ‘अपनों’ के खिलाफ भी बोलने से नहीं चूकेगा। 



बात साल 2009 की है।
ग्रेजुएशन में पढ़ने वाली उस दिव्या बाजपेई को किसी से कोई मतलब नहीं था, कोशिश थी कि बस पढ़ाई करके कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए। कॉमर्स से पढ़ाई कर रही थी, साथ में एक कंप्यूटर कोर्स भी जॉइन किया था। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियाँ सामान्य तौर पर इससे ज़्यादा कुछ सोच भी कहां पाती हैं। उसी कोचिंग में एक लड़का और पढ़ता था, हम अच्छे दोस्त थे। अच्छे मतलब एक घंटे की कोचिंग में बस यूँ ही मिल जाने वाले दोस्त। कोचिंग ख़त्म हुई तो संपर्क भी ख़त्म हो गया। फिर 2011 में लखनऊ विश्वविद्यालय में फिर उससे मुलाक़ात हो गई। अपने कुछ दोस्तों के साथ वह एबीवीपी की मेंबरशिप करा रहा था। मेरे साथ भी 4-5 लड़कियाँ थीं, तो मैंने भी मेंबरशिप करा ली। मुझे या मेरी दोस्तों को यह नहीं पता था कि एबीवीपी क्या है, लेकिन बस समझने में ज़्यादा टाइम ना बर्बाद हो, तो तुरंत पर्ची कटवाई और जाने लगी। तभी उस लड़के ने पीछे से आवाज़ देकर रोका और मेरे पास आया, मेरा नंबर पूछा। मैं उस वक़्त पढ़ाई के साथ एक स्कूल में पढ़ा भी रही थी। एक छोटा सा रिलायंस का फ़ोन था। नंबर दिया और उसने मिसकॉल की।


कुछ दिनों के बाद उसका फ़ोन आया, उसने कहा कि ‘शहीद स्मारक’ पर अपनी कुछ दोस्तों को लेकर आ जाओ। मैंने पूछा- क्यों? उसने कहा कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ धरना देना है। पर मुझे देश में हो रहे भ्रष्टाचार से क्या फ़र्क़ पड़ता था। मैंने मना कर दिया। देर शाम फिर उसका फ़ोन आया। उसने कहा कि चलो ठीक है, एक बार मिल लो, धरने में मत आना। मैंने बेमन से कहा कि चलो ठीक है। मैं मिलने गई। क़रीब देढ़ से दो घंटे तक उसने मुझे समझाने की कोशिश की कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में साथ लेना क्यों ज़रूरी है। उसके कुछ और भी दोस्त साथ थे। मुझे तो समझ में नहीं आया लेकिन मेरे साथ खड़ी मेरी दोस्त तैयार हो गई। उस लड़के की अगली लाइन थी- एक बार दिल्ली का माहौल समझो, चलो ठीक है कल दोपहर में मेरे साथ मेरे घर चलना। मैंने मना कर दिया, क्योंकि मुझे पढ़ाई भी करनी थी। लेकिन वह पीछे ही पड़ गया। फिर हमने अगले दिन का इंतज़ार नहीं किया, मैं उसी शाम पहली बार उसके घर गई। वहाँ उसने कंप्यूटर पर कई विडियो दिखाए, लाखों की भीड़ दिल्ली में बैठी थी। फिर उसने सैकड़ों तर्क दिए और अहसास दिलाया कि एक भारतीय के तौर पर मेरी भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं। जो छोटी-छोटी क्लिप्स उसने मुझे दिखाई थीं, उनमें कुछ तो नारेबाज़ी की थीं और कुछ एक कवि की। एक कवि जो ‘तिरंगा’ भी सुनाता था और अपने भाषण से वहाँ मौजूद लोगों में ऊर्जा भी भर रहा था। फिर मुझे याद आया कि यह तो कुमार विश्वास हैं, जिनकी कविता ‘कोई दीवाना कहता है’ शायद ही मेरी उम्र के लड़की-लड़के से छूटी हो। 


खैर, स्मार्टफ़ोन तो तब थे नहीं, तो मेरी एक दोस्त आँचल से उसका नोकिया का मल्टिमीडिया फ़ोन लेकर उसमें 3जीपी फ़ॉर्मेट में उन क्लिप्स को डलवाया। वहाँ से निकली और रिक्शे पर बैठी तो उसने कहा कि ‘कल विश्वविद्यालय पर पुतला फूंकना है, 20 लड़कियों को लाने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी।’ उस वक़्त मैं भी जोश से लबरेज़ थी, मैंने भी कहा कि पक्का ले आऊँगी। लेकिन घर जाकर जब दोस्तों से बात करना शुरू किया तो अधिकांश ने मना कर दिया। 3-4 दोस्त ही तैयार हुईं। अगले दिन सुबह एकाउंट्स की कोचिंग गई, वहाँ कुछ लोगों को साथ चलने के लिए मना लिया। लगभग 13 लोग हम विश्वविद्यालय पहुँचे, हालाँकि उनमें लड़कियाँ सिर्फ़ 7 ही थीं। हम सभी पहली बार किसी प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे। चारों तरफ़ पुलिस थी, हम लोगों ने पुतला दहन का स्थान बदला और जैसे ही पुतला फूंका, तुरंत पुलिस की लाठियाँ बरसने लगीं। सब वहाँ से तुरंत ग़ायब हो गए, मेरे साथ जो लोग थे, उनको पता ही नहीं था कि भागना भी होता है। उस शाम पता लगा कि लोगों में यह भ्रम था कि लड़कियाँ होती हैं तो पुलिस जल्दी लाठियाँ नहीं बरसाती है। लेकिन यह भ्रम भी टूट चुका था। रातभर मेरे दिमाग़ में वहाँ लगे नारे गूंजते रहे। अगली सुबह अख़बार में फ़ोटो छपी तो घरवालों ने खूब समझाया। लेकिन उस पुराने दोस्त ने सपने ऐसे दिखाए थे, जैसे हम कुछ लड़के-लड़कियां पूरी व्यवस्था बदलने वाले हैं। 


अगले दिन से दिन में चार-पांच प्रदर्शन हो ही जाते थे। मेरा काम था, अधिकतम लड़कियों को जोड़ना, उन्हें बताना कि इस आंदोलन में शामिल होना क्यों ज़रूरी है। मैं कोई नेता तो थी नहीं, जो भाषण देकर लोगों को अपने साथ जोड़ लेती। मैं बस कुमार विश्वास जी की वो छोटी-छोटी क्लिप्स दिखाती थी। 3-4 दिन की मेहनत में मेरे साथ क़रीब 170 ऐसी लड़कियों की टीम थी जो हर वक़्त उपलब्ध रहती थी। कभी पैदल मार्च तो कभी सांसद का घेराव। बस सब चलता ही जा रहा था। कुछ दिन बाद आंदोलन ख़त्म हो गया। एक नए राजनीतिक दल के बनने की घोषणा हुई, उसमें कुमार विश्वास जी भी थे, लेकिन विचार ऐसे बन चुके थे कि उस दल को स्वीकार भी नहीं कर पा रही थी और कुमार विश्वास जी के तर्कों को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर पा रही थी। लेकिन हाँ, मन में एक विश्वास था कि जो आंदोलन युवाओं के विश्वास की नींव पर खड़ा था, उससे निकले ये कुछ लोग ज़रूर बदलाव लाएँगे। फिर पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू हो गई और मैं भी इन चीजों से हटकर अपनी पढ़ाई में लग गई।  


साल 2014 तक स्मार्टफ़ोन ठीक तरह से प्रचलन में आ गए थे। मैं अपनी पढ़ाई-नौकरी में व्यस्त थी। जिस लड़के ने मुझे तीन साल पहले एबीवीपी से जोड़ा था, उसका नाम ‘विश्व गौरव’ था। उससे 3-4 महीनों में हाय-हेल्लो हो जाता था। वो दिल्ली में था और मैं लखनऊ में। फिर एक दिन अचानक उसने कविता मुझे भेजी। मैंने पूछा-तुमने लिखी है? उसने कहा- नहीं, लेकिन पढ़ो ऐसे, जैसे मैं तुमसे कह रहा हूँ। मुझे कुछ समझ नहीं आया। फिर भी मैंने गूगल पर सर्च किया तो पता लगा कि वह कविता डॉ. कुमार विश्वास की है। अगले 3-4 दिन के बाद उसका मैसेज आया- मुझसे शादी करोगी? मेरे लिए थोड़ा सा अप्रत्याशित था। मैं तो उसके परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती थी। इसलिए मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। देर शाम उसका कॉल आया। मैंने फ़ोन उठाया तो वही सवाल। मैंने कहा कि हम अच्छे दोस्त हैं, और वही रहना चाहते हैं। उसने कहा ठीक है, लेकिन अगर हम दोस्त हैं तो हमें अपनी बातें तो एक दूसरे से शेयर करनी चाहिए। फिर हम देर रात तक बातें करने लगे। पहले तो दिनभर की बातें और फिर एक साथ फ़ोन पर डॉ. कुमार विश्वास जी की कविताएँ सुनते थे। हम जितना एक-दूसरे को जानते थे, उसमें बस यही एक चीज कॉमन पसंद भी थी। यह सिलसिला क़रीब 7-8 महीने चला होगा। एक-एक कविता हमने हज़ारों बार सुनी। 


वे कविताएँ सुनते-सुनते कब मुझे विश्व से प्यार हो गया, पता ही नहीं चला। फिर एक शाम मैंने उससे पूछा कि तुम्हारा पूरा नाम क्या है? उसने कहा- विश्व गौरव। मैंने कहा- मतलब पूरा (मैं उसकी कास्ट पूछना चाहती थी, हम परिवार में बात करते तो पहली समस्या तो यहीं पर खड़ी होती।) उसने कहा- पूरा नाम विश्व गौरव ही है। बाक़ी जाति जानना चाहती हो तो वह तो कर्मों के हिसाब से तय होती है, और नौकरी करता हूँ तो वैश्य समझ लो। मैंने मान लिया कि वह ब्राह्मण तो नहीं है। लेकिन मेरा प्रेम जिस स्तर पर पहुँच चुका था, सच कहूँ तो वहाँ जाति इतना मैटर भी नहीं करती थी। क़रीब एक साल के बाद मुझे पता लगा कि वह भी ब्राह्मण परिवार से ही है। खैर, तीन सालों के संघर्ष के बाद हमारी शादी हो गई। शादी के बाद भी हमारे घर में शाम को डॉ. कुमार विश्वास की कविताएँ हर रोज़ सुनी जाती थीं। मैं उनसे कभी मिली नहीं थी, लेकिन उनकी बातें और कविताएँ और पुराने भाषण सुनकर मुँह से स्वतः ही ‘कुमार भईया’ निकलता था।


22 जून 2018, विश्व कुछ परेशान थे। पत्रकार रवीश कुमार ने कोई रिपोर्ट की थी, और उसमें फैक्ट्स में गड़बड़ी थी। असल फैक्ट्स के साथ उन्होंने एक ब्लॉग लिखा था और उसे संस्थान ने प्रकाशित करने से मना कर दिया था। विश्व ने उसे अपने पर्सनल ब्लॉग पर डाला। वह जब परेशान होते थे तो कुछ ना कुछ लिखते थे। अगले दिन मैं दोपहर में कुमार भईया का एक इंटरव्यू देख रही थी, वह राजनीति पर कुछ बोल रहे थे। इंटरव्यू देखने के बाद मैंने विश्व की डायरी उठाई और देखने लगी कि पिछली रात उन्होंने क्या लिखा था। उसमें एक कविता लिखी थी। कविता कुछ यूँ थी- 

जब तक भोली जनता को, वे छल से शांत कराएंगे

तब तक बन रण के कान्हा हम, गीता का पाठ पढ़ाएंगे


वे मूर्ख समझकर हम सबको, नैसर्गिक झूठ दिखाते हैं

आनंद भाव से सत्य मानकर, हम उनके ही गुण गाते हैं


आडंबर वाली वे रस्में, अब और नहीं सह पाएंगे

अनुकूल रहे हम सदा सत्य के, स्फूर्ति पुनः वह लाएंगे


सत्ता के चरण पखार हमें, ना पुरस्कार की आशा है

बस बने प्रतिष्ठा भारत की, अभियोग सभी सह जाएंगे


नयन सेज पर एक स्वप्न है, आर्य पुनः हम बन जाएं

तुम छेड़ोगे यदि इसको तो, अरिहंत रूप अपनाएंगे


हैं शिव हमारे हर कदम में, विषपान से घबराते नहीं

हो तिमिर यदि गृहकलश में, चुप बैठ हम पाते नहीं,

स्वयं जलकर उस अंधेरे का सुखद वध हम करेंगे

प्राणदानी, ब्रह्म दीपक, बन सदा यूं ही जलेंगे।


इसी कविता से दो पंक्तियाँ उठाकर मैंने कुमार भइया को मेंशन करते हुए उनकी तस्वीर के साथ ट्वीट कर दिया। कुछ देर के बाद ट्विटर के इनबॉक्स में एक मैसेज आया। ‘Shandar’, मैसेज कुमार भईया का था। बस इतना सा ही संवाद था हमारा। 


इसी साल सितंबर में मुझे मातृत्व का सौभाग्य मिलने वाला था। बच्चे के नामकरण को लेकर मेरे और विश्व के परिवारों की परंपराएँ अलग थीं। विश्व के परिवार की परंपरा थी कि कोई ब्राह्मण ही नामकरण करता था। वहीं मेरे परिवार में बच्चे के मामा को नामकरण का दायित्व निभाना होता था। विश्व का कहना था कि अगर कोई ब्राह्मण नामकरण करेगा तो वह ऐसा होना चाहिए जो अपने ज्ञान की वजह से ब्राह्मण हो, ना कि नाम के पीछे लगी ‘जाति’ से। मैंने बहुत विचार किया और फिर लगा कि उससे बड़ा ब्राह्मण कौन है, जो सदा सत्य बोलता है, जिसकी जिह्वा पर स्वयं माँ शारदे विराजमान रहती हैं। फिर मैंने कुमार भइया को एक मैसेज करके आग्रह किया कि वह मेरे बच्चे का नामकरण करें। ऐसा होने से मेरे और विश्व के परिवार की परंपरा का निर्वहन भी हो जाता और विश्व की इच्छा भी पूरी हो जाती। कुमार भइया की ओर से जवाब आया, ‘नवागत का स्वागत है ! समय पर सूचित करना ! यथेष्ट करूँगा ! जीती रहिए’


बस यहीं से भाई-बहन का मुंहबोला रिश्ता ‘वर्चस्व’ की डोर से बंध गया…


सिर्फ मैं ही नहीं, देश की लाखों बेटियों के मन से डॉ कुमार विश्वास के लिए 'भाई' का भाव ही आता है, क्योंकि हम सभी को भरोसा है उनपर... राजनीति में रहने के बावजूद यदि कोई अपने से पहले उन अपनों के बारे में सोचता है, जिनसे कभी मिला ही नहीं तो उससे बेहतर इंसान तो कोई हो ही नहीं सकता। इन सबके बीच एक और सपना था, जो अब तक अधूरा है। वह सपना है सदन से कुमार भईया को सुनना। पता नहीं, आप क्या सोचते हैं, लेकिन मुझे अपने श्रीराम पर भरोसा है, मुझे भरोसा है कि भले ही 2011 में दिखाए गए सपनों की हत्या कर दी गई हो, लेकिन यह सपना जरूर पूरा होगा।  

2 comments:

  1. बहुत अच्छा लगा पढ़कर...आपके बारे में जानने को मिला☺
    और मुझे सर की ये बात बहुत अच्छी लगी कि जाति कर्मों से निर्धारित होती है।

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