Wednesday, June 7, 2023

मैंने पत्रकारिता क्यों छोड़ी, आगे क्या करूंगी.... अपनों के हर सवाल का जवाब

 


देश में यूपीए की सरकार थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा था। अधिकांश राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर होने वाली बहस में 'इंडिया अंगेस्ट करप्शन' की ओर से जो चेहरा दिखता था, वह डॉ. कुमार विश्वास का था। लखनऊ में मैं भी उस आंदोलन से जुड़ी थी। कांग्रेसी अक्सर कहते थे कि डॉ कुमार विश्वास तो शिक्षक हैं, जब वह आंदोलन कर रहे हैं तो क्लास कौन ले रहा है। ऐसी ही एक बात एक बार टीवी डिबेट के दौरान भी कही गई। वहीं पर डॉ. कुमार विश्वास ने नौकरी छोड़ने का ऐलान कर दिया।

लेकिन सवाल यह है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?

उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस वक्त देश को 'शिक्षक कुमार विश्वास' से ज्यादा 'आंदोलनकारी डॉ. कुमार विश्वास' की जरूरत थी। वह नहीं चाहते थे कि 'आंदोलनकारी डॉ. कुमार विश्वास' की वजह से 'शिक्षक कुमार विश्वास' के साथ जुड़े दायित्वबोध पर प्रश्न चिह्न ना उठें।

मेरी पत्रकारिता का करियर बहुत लंबा नहीं रहा। 7-8 सालों के छोटे से करियर में राजनीति से दूर शिक्षा पर काम करने की कोशिश की। सभी को पता है कि मैं राष्ट्रवादी विचार परिवार से आती हूं। लेकिन पत्रकारिता के करियर के आखिरी के पांच साल शिक्षा क्षेत्र को ही दिए। उत्तर प्रदेश देखती थी, राज्य में भाजपा की सरकार थी तो सवाल भी उनसे ही पूछे। विश्वविद्यालयों में प्रवेश, परीक्षा और परिणाम को लेकर भी जो खामियां मिलती थीं, उन्हें लेकर भी राज्य की भाजपा सरकार को ही घेरा। अच्छाइयों पर प्रशंसा भी की। लेकिन उस वक्त जब सवाल उठाती थी तो समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस तक के नेता/छात्रनेता कहते थे- दीदी, बहुत अच्छा काम कर रही हैं, आप लगी रहिए। इसी बीच ईश्वर की कृपा से एक प्यारी से बिटिया का जीवन में आगमन हुआ। बेटा चार साल का हो गया था, लेकिन मुझे लगता था कि उसे कम समय दे पाई हूँ तो सोचा कि फुलटाइम नौकरी से एक ब्रेक ले लेती हूँ, फ्रीलांसिंग करके सैलरी के बराबर तो मिल ही जाएगा। काम ठीक-ठाक चल रहा था।

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फिर अचानक से एक दिन समाजवादी पार्टी के मीडिया सेल के ट्विटर हैंडल से प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पर अमर्यादित टिप्पणी की गई। मैंने और मेरे पति ने सामान्य भाव के साथ आपत्ति जताई कि भाई, राजनीतिक लड़ाई अलग है लेकिन सूबे के उपमुख्यमंत्री के लिए अमर्यादित भाषा? यह तो ग़लत है। उसके बाद फिर समाजवादी पार्टी के नेताओं/कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक मंचों पर यह कहना शुरू कर दिया कि मैं भाजपा की एजेंट हूँ। पत्रकारिता के नाम पर हम पति-पत्नी भाजपा की दलाली करते हैं। इतना ही नहीं, मैं ब्राह्मण परिवार से आती हूँ, इसे लेकर भी अनर्गल टिप्पणियाँ शुरू हो गईं। यह सब सुनकर और पढ़कर मन को बहुत कष्ट हुआ। शांत तो बैठ नहीं सकती थी तो जवाब देना शुरू किया। जवाब दिया तो हमले भी और तेज़ हो गए। रेप की धमकियाँ मिलने लगीं। 

कोविड की पहली लहर के दौरान मेरे जिस पति ने घर के बाहरी कमरे में अपना बेड लगवा लिया था, और दिनभर बाहर लोगों की मदद में लगा रहता था, घर से खाना बनवाकर बाँटता था, सरकार की लापरवाहियों को आईना दिखा रहा था, सरकारी राशन की घपलेबाजी करने वालों को सज़ा दिलवा रहा था, दूसरी लहर के दौरान जिसने बंगाल में होते हुए भी अपने सारे संबंधों को पिटारा अपरिचितों के लिए खोल दिया था, जिसने देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले परिचितों की मदद से पता नहीं कितनों की मदद की, उसका चरित्र हनन किया जाने लगा। तब तीन दिन ठीक से सोच विचार करने के बाद मैंने तय किया कि अब पूर्ण रूप से पत्रकारिता छोड़ दूँगी।

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कई लोग मुझसे सवाल करते हैं कि पत्रकारिता क्यों छोड़ी?

मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मुझे पता है कि जिस पार्टी के नेताओं के संरक्षण में मेरा, मेरे पति का, मेरे परिवार का, मेरे विचार का, मेरे दायित्वबोध का, मेरे समाज का, और तो और, मेरे जन्मजातीय संस्कारों पर आघात किया गया, उनसे तो आजीवन शत्रुता निभानी है। ऐसे में दूसरे पक्ष वालों का लाभ भी तय है। अब पत्रकार रहते हुए शत्रुता निभाती तो शत्रु मुझे अपने शत्रु का मित्र बताने लगता। इसलिए पत्रकारिता की शुचिता कोई प्रश्नचिह्न ना लगा पाए , इसलिए पत्रकारिता जीवन भर के लिए छोड़ दी। 

मैं जातियों में विश्वास नहीं रखती थी, लेकिन जब मुझे सिर्फ़ इसलिए गालियाँ पड़ने लगीं, क्योंकि मेरे नाम के आगे ‘त्रिपाठी’ लगा है तो मुझे लगा कि इसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। सड़क के किनारे पूड़ी-सब्जी का ठेला लगाकर दिन में एक समय भोजन करने वाले रामकृष्ण ’मिश्रा’ के बेटे राहुल ’मिश्रा’ को जब विश्वविद्यालय के इंट्रेंस में 89 नंबर लाने के बाद भी एडमीशन नहीं मिलता है और उसी विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ‘जनजीवन प्रजापति’ की बेटी ‘आरोही प्रजापति’ को 55 नंबर लाने पर एडमिशन मिल जाता है तो मुझे लगा कि इस विसंगति के ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। घर में सुबह आँखों से नींद तब ओझल होती है, जब दादी सास की वाणी में मानस की चौपाइयाँ कानों में पड़ती हैं, उस श्रीरामचरितमानस और उसे रचने वाले बाबा तुलसी का चरित्र हनन कोई जाहिल करता है तो मुझे लगता है कि उसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। मुझे संस्कार देने वाले परिवार, परिवार से दूर आकर एक नई जगह पर मुझे कभी परिवार की कमी ना महसूस होने देने वाले मेरी ससुराल, मेरी ज़िन्दगी में आत्मविश्वास भरने वाले मेरे जीवन के राघव, मेरे विश्व, का कोई निर्बुद्धि चरित्र हनन करने का प्रयास करेगा तो मैं बोलूँगी। एक हज़ार बार बोलूँगी। जब तक ईश्वर बोलने की क्षमता देकर रखेगा, तब तक बोलूँगी।  

जीवन में जब समाज को समझना शुरू किया तो हर शख़्स में कुछ ना कुछ कमी मिल ही जाती थी। दो ही शख़्स मिले जिनके आचार/विचार/व्यवहार में पूर्णता महसूस हुई। एक कुमार भईया और दूसरे विश्व। लगभग 10 साल पहले एक एक कार्यक्रम में कुमार भईया को कहते हुए सुना था कि मुझे नहीं पता कि आगे मैं क्या करूँगा, सब ईश्वर ही कराएगा। मुझे भी नहीं पता कि मैं आगे क्या करूँगी। पत्रकारिता मेरा पैशन थी। उद्देश्य समाज में, व्यवस्था में बदलाव लाना था। पैशन छूट गया, उद्देश्य वही है। विश्व कहते हैं कि मैं जो करना चाहता हूँ, कई बार लगता है कि वो नहीं कर पा रहा हूँ, लेकिन संतुष्टि इस बात की है कि जो मैं नहीं करना चाहता हूँ, वह नहीं कर रहा हूँ। मैं भी बस वही कर रही हूँ, और करती भी रहूँगी।

आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद बना रहे। 

आपकी अपनी



दिव्या